Sunday, May 1, 2011

अब कोई गुलशन ना उजड़े, अब वतन आज़ाद है!

ना तीर निकालो, ना तलवार निकालो,
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो!
आज़ादी से पहले, ये शे'र हमारे क्रांतिकारियों के दिल-ओ-दिमाग़ में अपने गुलाम मुल्क को अंग्रेजों से आज़ाद करवाने के लिए जरूर जोश भरने का काम किया करता था. कलम की ताकत ने अंग्रेजों को बहुत हद तक अपने हथियार डालने पर मजबूर कर दिया था. निश्चय ही किसी ज़माने में ये शे'र प्रासंगिक रहा होगा बल्कि यूँ कहना चाहिए, रहा था मगर आज के दौर में यही शे'र प्रासंगिक कम फंतासी ज़्यादा लगता है. आज से तीन-चार दशक पहले तक स्थिति ये थी कि अगर किसी व्यक्ति को अपनी किसी बात के पुख्ता होने का प्रमाण देना होता था तो वो हवाला देता था-'ये बात फलां अखबार में छपी है!' और आज स्थिति ये है कि वही व्यक्ति ये कहने से भी नहीं चूकता है-'अरे भाई, ये तो अखबारी ख़बर है!!'
वास्तव में आज अखबार का अस्तित्व ही संकट में पड़ता नज़र आ रहा है. सुबह उठते ही अखबार हाथ में लेना अब एक खानदानी रस्म से ज़्यादा कुछ नहीं रह गया है. एक ज़माना था जब ख़बरों का प्रमुख ज़रिया अखबार ही हुआ करता था. रेडियो-ट्रांजिस्टर की अपनी सीमायें थीं, वो कुछ ख़ास और महत्वपूर्ण समाचारों का प्रसारण ही कर पाते थे. उनके प्रसारण की एक समय-सीमा भी निर्धारित थी. लोक-चाव की ख़बरों के लिए उनके पास कोई वक़्त नहीं होता था. दूसरे शब्दों में कहें तो रेडियो-ट्रांजिस्टर की खबरें, बस्स.. खबरें ही हुआ करती थीं. ख़बरों का विश्लेषण और ख़बरों के अन्दर की ख़बर, अखबार ही लिया करते थे. उस ज़माने में सुबह घर में अखबार आते ही हलचल शुरू हो जाती थी. घर के बड़े-बुजुर्गों से लेकर छोटे बच्चे तक सभी अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से अपनी बारी का इंतज़ार किया करते थे.
आज के दौर में बुजुर्गों की हैसियत की बात तो बेमानी हो गयी है. अगर घर का बड़ा-बुज़ुर्ग कुछ कहने की जुर्रत करता है तो आज का युवा, उस बुज़ुर्ग को उसकी हैसियत समझाने से भी परहेज़ नहीं करता. ज़्यादातर घरों में तो बुजुर्गों को उनकी हैसियत समझ में आई हुई है इसलिए ऐसे तथाकथित आदर्श परिवारों का ज़िक्र हम नहीं करेंगे....
बात शे'र से शुरू हुई थी मगर रस्ता भटक गयी. तो लो जनाब हम वापस अपने रस्ते पर आते हैं. हमारा बचपन अखबार के स्वर्णिम युग का चश्मदीद गवाह रहा है. बचपन का ज़िक्र इसलिए भी जरूरी है क्योंकि उस वक़्त तक कम से कम हमारे शहर में तो दूरदर्शन का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था. हमें अच्छी तरह याद है, जब हम दसवीं जमात में दूसरी बार नाकामयाब हुए थे, उसके अगले ही दिन हमारे वालिद साहब एक अदद ब्लेक एंड व्हाइट पोर्टेबल टीवी ले कर आये थे और हमने खुद ही उसे अपना इनाम मान कर, मन ही मन इतराना शुरू कर दिया था. टीवी और दूरदर्शन उस ज़माने में पर्यायवाची हुआ करते थे क्योंकि उस वक़्त का टीवी, सिर्फ और सिर्फ दूरदर्शन ही दिखाया करता था. दूरदर्शन ने ख़बरों को एक नया अंदाज़ दिया. अब ख़बर का वीडियो भी देखने को मिलने लगा और ख़बर ज़्यादा जीवंत, ज़्यादा खुशनुमा बनने लगी. दूरदर्शन का ये प्रयास आम आदमी को कब अखबार से दूर ले जाने लगा, पता ही नहीं चला. अब लोगों को खबरें भी किसी हिंदी फिल्म की माफिक़ लगने लगीं थीं.
धीरे-धीरे दूरदर्शन के साथ-साथ दूसरे चैनलों का जन्म हुआ. ख़बरों का रूप और बदलने लगा. अखबार के अस्तित्व को सबसे बड़ा झटका उस वक़्त लगा जब 'खबरिया' चैनलों की शुरुआत हुई. अब आम आदमी अपनी सुविधा के हिसाब से खबरें देखने लगा और खबरें पढने का जुनून, कब खबरें देखने का शौक बन गया, किसी को पता ही नहीं चला. वक़्त के इस ऐतिहासिक बदलाव ने जहाँ एक ओर अखबारों की नीवं हिलाने की पहल की वँही दूसरी ओर 'खबरिया' चैनलों ने ख़बरों के रूप को ही बदल कर रख दिया. अलग-अलग चैनलों के दावे सामने आने लगे कि 'फलां ख़बर को सबसे पहले हमने दिखाया..' और 'फलां घटना स्थल पर हमारे संवाददाता सबसे पहले पहुंचे' वगैहरा-वगैहरा. इस आपाधापी की होड़ में जंहा एक ओर आतंकवादियों ने होटल ताज की बर्बर घटना को अंजाम दिया वँही दूसरी ओर अखबारों का अस्तित्व और गहरे संकट में आ गया. आज हम-आप सभी जानते हैं कि हमारे मुल्क के तथाकथित 'खबरिया' चैनलों पर लाइव प्रसारित होने वाली ख़बरों ने होटल ताज में छिपे आतंकवादियों को किस कदर मदद की थी. उनका पूरा नेटवर्क हमारे इन 'खबरिया' चैनलों की मेहरबानियों से ही चल रहा था. प्रेस की स्वतंत्रता किस हद तक होनी चाहिए ये एक विचारणीय प्रश्न है.
ख़ैर जनाब, हम फिर अपने मुद्दे से भटक गए. बात चल रही थी अखबार की. आज हम सभी अखबार पढ़ते जरूर हैं मगर उसमें वो बात नहीं होती जो अखबार में होनी चाहिए. कमोबेश सभी खबरें हम पढने से पहले देख चुके होते हैं. जिस मैच को आपने दिन भर टीवी के आगे बैठ कर लाइव देखा था, उसकी ख़बर में आपको भला क्या इंटरेस्ट होगा! आज जरुरत इस बात की है की हर एक व्यक्ति, हर एक संस्था, हर एक सरकार अपनी अपनी जिम्मेदारियों को स्वयं तय करे, स्वयं परिभाषित करे.
ये सही है कि ख़बरों की उपलब्धता 'खबरिया' चैनलों पर पहले होना लाज़िमी है मगर ख़बरों का सही विश्लेषण और उसके निकट एवं दूरगामी प्रभावों की विस्तृत विवेचना ही आज के दौर में अख़बारों को अस्तित्व-संकट से बचा सकती है. अखबारों का निर्भीक होने साथ-साथ निष्पक्ष होना पहली जरुरत है. अख़बारों की ख़बर सच्चाई पर आधारित हो, ना कि मसाला-माल पर! पत्रकारों की ये जिम्मेदारी, खुद पत्रकार को ही तय करनी होगी. वरना कंही ऐसा ना हो कि किसी शाही शादी की ख़बर, किसी मज़लूम औरत के साथ ट्रेन में हुए बलात्कार की ख़बर को भुला दे और कोई गुनाहगार रेलकर्मी बलात्कार करने के बाद भी बा-इज्जत बरी हो जाये!

Monday, April 11, 2011

अन्ना तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं

 अन्ना हजारे के अनशन के दौरान हमारे पड़ोसी गुप्ताजी ने भी बड़ी मुस्तैदी दिखाई थी. मोहल्ले के बच्चों को इकठ्ठा करके एक मिनी जलूस निकाल कर "अन्ना तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं.." के नारे लगवाए थे और पूरे मोहल्ले में अपने-आप को तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का लोकल पैरोकार बना लिया था. अन्ना हजारे के अनशन को मिली सफलता ने हमारे दिल-ओ-दिमाग पे कुछ ऐसा असर किया कि क्या बताएं. हमें लगने लगा कि आज़ादी के सही मायने तो अब समझ आने लगे हैं. अब तक जो देखा-भोग था, अचानक आज़ादी से पहले की बात लगने लगा. भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की एक छोटी अलख हमारे भीतर भी सुलगने लगी.
हमने निश्चय किया कि हम भी अपने लेवल पर भ्रष्टाचार मिटाने का कोई सार्थक प्रयास करेंगे. हमारे अन्दर का क्रन्तिकारी जागने लगा और सरफरोशी की तमन्ना अंगडाई लेने लगी. अब बड़ा सवाल ये था कि भ्रष्टाचार को ढूँढने की मुहिम की शुरुआत कहाँ से हो? अचानक हमें अपने मोहल्ले के लब्ध-प्रतिष्ठ नेता गुप्ताजी की याद आई, सोचा- चलो उन्हीं से पूछा जाये कि ये भष्टाचार कहाँ मिलेगा और उसे कैसे ख़त्म करना है....
अपने ख्यालों में खोये-खोये हम गुप्ताजी के घर के आगे पहुँच गए. पता चला, गुप्ताजी के यहाँ कंस्ट्रक्शन-वर्क चल रहा है और बड़े जोर-शोर से चल रहा है. हम मज़दूरों से बचते-बचाते घर के भीतर दाखिल हुए तो कुछ अजीब-सा महसूस हुआ मगर ये समझ नहीं आया कि जो 'अजीब-सा' महसूस हुआ, वो क्या है...
ख़ैर जनाब, घर के बरामदे में गुप्ताजी चारपाई पर अधनंगे लेटे हुए पान चबा रहे थे. हमारे अभिवादन का जवाब दिए बगैर बोले,"आज तू कैसे रास्ता भूल गया?"
हमें उनका इस कदर बे-तक़ल्लुफ़ होना कुछ नागवार गुज़रा मगर उन्होंने इस बात पे गौर फरमाने की कतई कोशिश नहीं की और नौकर को चाय लाने का इशारा करते हुए हमें बैठने का इशारा किया. हम अनमने-से बैठते हुए कंस्ट्रक्शन-वर्क को देखने लगे. गुप्ताजी ने हमारी नज़रों को पढ़ लिया और बोले,"आगे जगह खाली पड़ी थी इसलिए तीन दुकानें बनवा रहा हूँ, जगह का उपयोग भी हो जाएगा और आमदनी भी होने लगेगी..."
अचानक हमें लगा, गुप्ताजी के घर में घुसते वक़्त हमें जो 'अजीब-सा' अहसास हुआ था वो हमारी समझ में आगया है, दरअसल गुप्ताजी का तथाकथित कंस्ट्रक्शन-वर्क उनके घर के आगे की सरकारी ज़मीन पर हो रहा था. अब हमें ये समझ नहीं आया कि गुप्ताजी से क्या कहें और कैसे कहें....
"चाय लो!" गुप्ताजी ने हमें मदहोशी से होश में लाते हुए कहा.
हमने अपने भीतर के अन्ना को सहेजते हुए गुप्ताजी से पूछ ही लिया,"आपका कंस्ट्रक्शन-वर्क, सरकारी ज़मीन पर तो नहीं हो रहा, मुझे तो ऐसा लगता है आप अपनी ज़मीन से तकरीबन दस फुट आगे आ गए हैं...."
"आपने क्या सरकारी ज़मीन की पैमाइश का ठेका ले रखा है?" गुप्ताजी ने हमारी बात को बड़ी बे-दर्दी से काटते हुए कहा,"ज़मीन सरकारी है तो क्या हुआ, है तो हमारे ही घर के आगे की! हम कौनसा आपके घर के आगे कंस्ट्रक्शन करवा रहे हैं? अपने काम से काम रखो, दूसरों के काम में दखल मत दो, खामखाँ परेशानी में पड़ जाओगे...."
गुप्ताजी और भी बहुत कुछ बोल रहे थे मगर हमें कुछ सुनाई नहीं दे रहा था. हम चुपचाप बिना चाय पिए अपने घर की तरफ चल दिए...
गली के नुक्कड़ पे कुछ बच्चे नारे लगाते हुए दौड़ रहे थे,"अन्ना तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं...,अन्ना तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं...!!"

Monday, March 28, 2011

भारत-पाकिस्तान के बीच होने वाला सेमी-फ़ाइनल मुकाबले का परिणाम आ चुका है....

जब छोटा था, तब रेडियो की कमेंट्री सुना करता था. घर में ट्रांजिस्टर तो था लेकिन वोह बाबूजी को खबरें सुनने के लिए चाहिए होता था और उस ज़माने में औलादों की इतनी औकात नहीं होती थी कि वालिद साहब के काम में आने वाली छोटी-बड़ी चीज़ों को, उनकी गैर-मौज़ूदगी में भी हाथ लगाने कि हिमाक़त कर सके! उनकी किसी चीज को बिला वजह छेड़ने का ख़याल ही पसीने छुड़वा देता था. यहाँ आज के दौर का बयान बेमानी होगा क्योंकि उन हालातों से तो हम-आप रोजाना ही रु-बरु होते हैं. माँ-बाप को अगर टेलिविज़न पर अपना कोई पसंदीदा प्रोग्राम देखना हो तो औलादों या औलाद कि औलाद से रिक्वेस्ट करनी पड़ती है.......
ख़ैर जाने दीजिये, हम ज़िक्र कर रहे थे क्रिकेट-कमेंट्री का- तो जनाब उस दौर में रेडियो पर कमेंट्री सुनना भी बड़े फख्र की बात हुआ करती थी. जब थोड़े बड़े हुए तो हिंदुस्तान में संचार-क्रांति का आग़ाज़ हो गया. रेडियो-ट्रांजिस्टर की जगह टेलीविजन लेने लगे. वो दौर भी कम से कम आज के दौर से बेहतर था. पूरे मौहल्ले में कुल दो या तीन घरों में ही टीवी सेट हुआ करते थे और पूरा मौहल्ला उसका लुत्फ़ लिया करता था. जिस घर में टीवी सेट होता, प्राय: उस घर के मेम्बरान खुद ज़मीन पर बैठ कर प्रोग्राम देखते और मौहल्ले के बड़े-बुजुर्गों को अपने घर के पलंग-सोफों आदि पर बिठा कर इज्ज़त बख्शते थे. मैं आपको यकीन दिला सकता हूँ कि मेरी बातों में रत्ती भर भी मिलावट नहीं है. मौहल्ले के बुज़ुर्ग भी उस ज़माने में किसी पडौसी के यहाँ नियमित रूप से जा कर टीवी देखना कमोबेश अपना हक़ ही मानते थे. आज अगर घर का कोई बच्चा, पडोसी के हम-उम्र बच्चे के घर रोज़ाना खेलने जाने लगता है तो सबसे पहले उस बच्चे की माँ  ही उसे टोक देती है- 'रोज़-रोज़ किसी के घर नहीं जाते!'
लो जनाब, हम फिर अपने मुद्दे से भटक गए. बात चल रही थी क्रिकेट-कमेंट्री की. टीवी के आजाने के बाद हमारा क्रिकेट प्रेम भी अपने शबाब पर आ गया. साठ-साठ ओवर के वन-डे मुकाबले में सुनील गावस्कर को शुरू से अंत तक बल्लेबाज़ी करते देखना और पौने दो सौ गेंदें खेल कर, कुल तीस-पैंतीस रन बना कर नाट-आउट लौटते हुए देखने की हमें आदत होने लगी थी. उस ज़माने में अकेला दूरदर्शन ही टीवी का मालिक था. मालिक से हमारा मतलब ये है कि टीवी पर सिवाय दूर-दर्शन के कुछ भी नहीं प्रसारित होता था. कभी-कभी छत की दीवारों पे चढ़ कर, एंटीने की दिशाएं बदल बदल कर पाकिस्तानी चैनल लगाने का असफल प्रयास भी किया करते थे. यहाँ मैं आपको यह भी बता दूँ कि दूर- दर्शन पर सभी क्रिकेट मुकाबले लाइव नहीं दिखाए जाते थे क्योंकि दूर-दर्शन की अपनी सीमाएं थीं. ख़ास तौर पर वेस्ट-इंडीज में, वेस्ट-इंडीज के साथ होने वाले मुकाबलों का सीधा-प्रसारण नहीं हुआ करता था. शायद वक़्त का फ़र्क ही इसकी मूल वजह हुआ करता होगा....लेकिन क्रिकेट के प्रति हमारा लगाव जुनून की हद तक बढ़ चुका था. उन दिनों में अक्सर दूर-दर्शन द्वारा ऐसे मुकाबलों का प्रसारण मुकाबला ख़त्म होने के तुरंत बाद शुरू होता था और पूरा मुकाबला जस का तस दिखाया जाता था. यहाँ ये भी बता दूँ, उन दिनों टीवी पर विज्ञापनों का भी इतना प्रकोप नहीं हुआ करता था. हमारे जुनून की इन्तेहा ये थी कि हम मुकाबले का नतीजा जानने की कोशिश किये बगैर पूरा प्रसारण ऐसे देखते थे मानो सीधा प्रसारण ही हो रहा हो. इस दौरान अगर कोई हमें मुकाबले का नतीजा बताने की कोशिश भी करता तो हम उसे 'कोशिश' फिल्म का संजीव कुमार बनाने से भी गुरेज़ नहीं करते थे. हकीकत मानिए, ये हमारे जुनून की इन्तेहा थी.
वक़्त बदला, वक़्त के साथ-साथ हालात भी बदलते गए. टीवी पर पहले जहाँ सिवाय दूर-दर्शन के कुछ दिखाई ही नहीं देता था, वहीँ अब टीवी में दूर-दर्शन को ढूंढना भी एक चेलैन्ज से कम नहीं है. वक़्त के साथ बदलाव क्रिकेट में भी आया. कई पुराने नियम टूटे और नए नियम बनाए गए. परिवर्तन प्रकृति का नियम है, ये हमने सुना था मगर परिवर्तन कब कहाँ और कितना होगा, इसका अंदाज़ा लगा पाना मुश्किल था....., है..... और रहेगा..... बहरहाल, इन तथाकथित परिवर्तनों के बीच हमारा क्रिकेट प्रेम महज प्रेम से जुनून में तब्दील हो कर ही रह गया- उससे ज्यादा नहीं बदल पाया.
आज जब पुरानी बातों को याद करने बैठा तो समझ नहीं आया कि क्या भूलूं, क्या याद करूँ.....
अचानानक मोबाइल की घंटी ने हमारी तन्द्रा भंग की और हमें वर्तमान में लौटने पर विवश कर दिया. देखा तो पता चला, पुराने मित्र पालीवाल का फोन था. फोन रिसीव करते ही पालीवाल बोला, "भारत- पाकिस्तान वाले सेमी-फ़ाइनल में भारत पहले बैटिंग करेगा और पाकिस्तान ये मुकाबला पांच से दस रनों के अंतर से हार जाएगा, मुकाबला रोचक होगा लेकिन नतीजा पहले से तय है......."
पालीवाल इसके आगे भी बहुत कुछ बोल रहा था मगर मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था......