Wednesday, February 29, 2012

वक़्त वक़्त की बात....


एक वो वक़्त था जब हम अपने प्रेम का इज़हार करने के लिए लाल गुलाब ले कर आते थे और बेगम साहिबा उस गुलाब के फूल को बड़ी शिद्दत के साथ सहेज कर रक्खा करतीं थीं. वक्त बदला, हालात बदले, गुलाब के आदान-प्रदान का वो हसीं सिलसिला वक़्त की मारामारी में कब और कहाँ खो गया, कुछ पता ही नहीं चला....
आज मुद्दत बाद सुबह बागीचे में पानी देते वक़्त हमारी नज़र खिले हुए सुर्ख लाल गुलाब के फूलों पर पड़ीं, ना जाने क्यों, गुज़रा हुआ ज़माना याद आ गया. ना चाहते हुए भी हमने एक अदद गुलाब का फूल तोड़ लिया और जा पहुंचे बेगम साहिबा के सामने. हम फूल पेश कर, अपने प्रेम का इज़हार कर पाते, इससे पहले ही बेगम साहिबा की कड़कती आवाज़ हमारे कर्ण-पटल से टकराई,"आपने ये फूल क्यों तोड़ा? मैंने गुलकंद बनाने के लिए उगाये हैं...आपको तोड़ने से पहले पूछना चाहिए था.....!!''वगैरह-वगैरह.
हमने मन ही मन सोचा, इन फूलों का गुलकंद तो ना जाने कब बनेगा, बनेगा भी या नहीं...मगर हमारे प्रेम-प्रदर्शन यानी इज़हार-ए-मोहब्बत के नेक इरादे का गुलकंद तो बन ही गया. हम चुपचाप वापस बागीचे में पानी देने चले आये..
पड़ोस में कहीं शींरी-फरहाद का गीत गूँज रहा था-
'गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दुबारा
हाफ़िज़ ख़ुदा तुम्हारा...'