Monday, September 17, 2012

प्यार अँधा है

एक बार की बात है. ईर्ष्या, प्यार, नफरत, दर्द आदि सब भावनाओं (Feelings) ने आपस में मिल कर छुपम-छुपाई खेलने का फैसला किया.
पहली डेन किसकी हो, यह फैसला करने के लिए सिक्का उछाल कर निर्णय लिया गया. अंतत: डेन लाने की पहली बारी दर्द की आई.
दर्द ने गिनती शुरू की. सब भावनाएं छुप गयीं.
झूठ, पेड़ के पीछे छुप गया....
प्यार, गुलाब की झाड़ी के नीचे झुक कर बैठ गया...
ईर्ष्या, बरगद के घने पेड़ में जा छुपी..
सब भा
वनाएं अपनी-अपनी सहूलियत के हिसाब से छुप कर बैठ गयीं.
दर्द ने सब भावनाओं को ढूंढना शुरू किया. एक-एक करके सब पकड़े गए सिवाय प्यार के!
ईर्ष्या ने दर्द को चुपके से बता दिया कि प्यार कहाँ छुपा है....
दर्द धीरे से गुलाब की झाड़ी के पास पहुंचा और प्यार की बांह पकड़ कर, झाड़ी से खींच कर बाहर निकाल लाया.
झाड़ी से खींचने की आपाधापी में गुलाब की झाड़ी के कांटे, प्यार की आँखों में चुभ गए और प्यार की आँखें खराब हो गयीं.
मामला ईश्वर के दरबार में पहुंचा. सारी बात सुनने के बाद, ईश्वर ने दर्द को सज़ा सुना दी.
ईश्वर ने दर्द को सज़ा देते हुए कहा,"चूँकि तुम्हारे कारण प्यार की आँखें खराब हुईं हैं, इसलिए आज के बाद, तुम्हें हमेशा प्यार के साथ ही रहना पड़ेगा!"
उस दिन से प्यार अँधा है और दर्द हमेशा उसके साथ होता है....

Sunday, September 16, 2012

हिना से तो बेहतर

माशूका जब अपने दिलबर से मिलने आई
दिलबर को ना पा कर वहाँ बहुत घबराई
घबराहट में उसने अपने दिलबर को तुरंत फोन लगाया
दिलबर के मोबाइल की रिंगटोन को पास ही बजते पाया
दिलबर माशूका को देख कर मुस्कुराया
माशूका को ये माजरा समझ नहीं आया
दरअसल वो अपने दिलबर को पहचान ही नहीं पाई थी
दिलबर ने अपने बालों में खिजाब नहीं हिना लगाई थी
माशूका नाराज़ हो गयी अपने दिलबर से
नाराज़गी को परोसते हुए बोली दिलबर से
खिजाब खत्म हो गया था पहले बता दिया होता
हिना से तो बेहतर था हिजाब लगा लिया होता !!
~गौतम केवलिया.
Hari Bol...

Wednesday, February 29, 2012

वक़्त वक़्त की बात....


एक वो वक़्त था जब हम अपने प्रेम का इज़हार करने के लिए लाल गुलाब ले कर आते थे और बेगम साहिबा उस गुलाब के फूल को बड़ी शिद्दत के साथ सहेज कर रक्खा करतीं थीं. वक्त बदला, हालात बदले, गुलाब के आदान-प्रदान का वो हसीं सिलसिला वक़्त की मारामारी में कब और कहाँ खो गया, कुछ पता ही नहीं चला....
आज मुद्दत बाद सुबह बागीचे में पानी देते वक़्त हमारी नज़र खिले हुए सुर्ख लाल गुलाब के फूलों पर पड़ीं, ना जाने क्यों, गुज़रा हुआ ज़माना याद आ गया. ना चाहते हुए भी हमने एक अदद गुलाब का फूल तोड़ लिया और जा पहुंचे बेगम साहिबा के सामने. हम फूल पेश कर, अपने प्रेम का इज़हार कर पाते, इससे पहले ही बेगम साहिबा की कड़कती आवाज़ हमारे कर्ण-पटल से टकराई,"आपने ये फूल क्यों तोड़ा? मैंने गुलकंद बनाने के लिए उगाये हैं...आपको तोड़ने से पहले पूछना चाहिए था.....!!''वगैरह-वगैरह.
हमने मन ही मन सोचा, इन फूलों का गुलकंद तो ना जाने कब बनेगा, बनेगा भी या नहीं...मगर हमारे प्रेम-प्रदर्शन यानी इज़हार-ए-मोहब्बत के नेक इरादे का गुलकंद तो बन ही गया. हम चुपचाप वापस बागीचे में पानी देने चले आये..
पड़ोस में कहीं शींरी-फरहाद का गीत गूँज रहा था-
'गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दुबारा
हाफ़िज़ ख़ुदा तुम्हारा...'